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कहानी संग्रह >> मोहब्बत का पेड़

मोहब्बत का पेड़

प्रिया आनंद

प्रकाशक : हिमाचल पुस्तक भंडार प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5883
आईएसबीएन :978-81-88123-71

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स्त्री का विद्रोही स्वर जो मोहब्बत की वकालत करता है

Mohabbat Ka Ped

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैसे तो संग्रह की सभी कहानियाँ प्रेम-कथाएँ ही हैं, मगर ‘मोहब्बत का पेड़’ कहानी कई प्रेम-कथाओं को जीवित कर देती है। इस कहानी में स्त्री का विद्रोही स्वर है, जो मोहब्बत की वकालत करता है और सामंती व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है। यहाँ गौर करने वाली बात सिर्फ यह है कि जहाँ इस कहानी का अंत होता है, वहीं एक नई कहानी की शुरूआत होती है।
नारी के संघर्ष और यातना की कहानी। यह कहानी प्रिया आनंद की कहानियों का प्रस्थान बिंदु हो सकती है।...
कमलेश्वर

मेरी कहानियों के पात्र

मैंने हमेशा ही कहानियाँ अपने मन की प्रसन्नता और संतुष्टि के लिए लिखीं, इसलिए कहानी-लेखन की प्रतिद्वंद्विता में भी नहीं हूँ। जो कुछ अपने आस-पास देखा, जिससे थोड़ा असहज महसूस किया, वही विषय कहानी का आधार बना। यह रोचक ही रहा कि मेरी कहानियों के ज्यादातर पात्र वास्तविक रहे। कभी-कभी तो बिना उनके जाने ही उन पर कहानियाँ बन गईं। इसके लिए मुझे उनके उठने-बैठने और चेहरों के भावों का गहन अध्ययन करना पड़ा।
लिखने के इस तरीके की वजह से ही मेरी कहानियों का औसत भी कम ही रहा। सात में कुल चार कहानियाँ। यह जरूर हुआ कि कहानियाँ अच्छी लिखी गईं और पसंद भी की गईं। मेरी कहानियाँ फॉरबिडेन लव पर आधारित हैं। मेरा अपना मानना है कि प्रेम एक शाश्वत भावना है वह किसी भी युग में अप्रासंगिक नहीं हो सकता, इसलिए समाज को अपनी सोच संकीर्ण न कर उदारवादी दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। संग्रह की प्रथम कहानी ‘सहेलियाँ’ के लिए कमलेश्वर जी ने खुद कहा था कि यह कांसेप्ट नया है, इसलिए यह कहानी काफी चर्चित होगी। फिलहाल हिमाचल में लोगों ने इसे पसंद किया।
कहानी-संग्रह की प्रेरणा देने वाले खुद कमलेश्वर जी ही थे। इस संग्रह का संपादन भी उन्होंने ही किया, इसलिए अभिभूत हूँ। मेरी तरफ से यह कहानी-संग्रह कमलेश्वर जी के लिए आदरांजलि है।

प्रिया आनंद

रोमानवादी यथार्थ की कहानियाँ


प्रिया आनंद की कहानियाँ जिंदगी के उन पलों और क्षणों की कहानियाँ हैं, जहाँ से युवा और किशोर उम्र के सपनों, कल्पनाओं, अनुभूतियों और संवेदनाओं की दुनिया शुरू होती है। ये कहानियाँ बताती हैं कि भीड़ और जीवन की आपाधापी से दूर और परिवार से अलग रहने वाली एक मध्यवर्गीय स्त्री के एकांतिक क्षणों की दुनिया कितनी उदार प्रेम में डूबी हुई हो सकती है। ये कहानियाँ आकार में छोटी जरूर हैं, मगर इनकी भाषा और इनका शिल्प अपने छोटे कलेवर में एक बड़ी कथा का कैनवास समेटे हुए लगता है। ‘सहर उदास है’, ‘टुकड़ा-टुकड़ा आकाश’, ‘मुक्ति-गाथा’, ‘धूप-चाँदनी’ और ‘आह..जिन्दगी’ आदि कहानियाँ अपनी विषयवस्तु में काफी प्रभावशाली हैं और उनकी बुनावट आकर्षित करती है। इनकी मानवीय संवेदना और अनुभूतिजन्य नारी-चेतना भी धारदार नहीं है।

इन कहानियों का परिवेश पहाड़ का जीवन है, इसलिए वहाँ रहने वाली स्त्री के मानसिक संघर्ष सजीव चित्र इन कहानियों में देखने को मिल जाते हैं। फिर भी ये कहानियां व्यापक नारी-परिवेश की हलचलों और मानसिक द्वंद्वों में व्यक्त कर देती है। पहाड़ी परिवेश में कही चादनी रात का खुशनुमा माहौल है तो कहीं पर बर्फ गिरने के आकर्षक दृश्य और इनसे गुँथी हुई जीवन की स्वाभाविक लय।
वैसे तो ‘एक हवा महकी-सी’, ‘शुक्रतारा’, ‘दोस्त...और क्या....’, ‘सहेलियाँ’ आदि कहानियाँ प्रेम-कथाएँ ही हैं, मगर ‘मोहब्बत का पेड़’ कहानी कई प्रेम-कथाओं को जीवित कर देती है। इस कहानी में स्त्री का विद्रोही स्वर है, जो मोहब्बत की वकालत करता है और सामंती व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है। यहाँ गौर करने वाली बात सिर्फ यह है कि जहाँ इस कहानी का अंत होता है, वहीं एक नई कहानी की शुरू होती है।

नारी के संघर्ष और यातना की कहानी। यह कहानी प्रिया आनंद की कहानियों का प्रस्थान बिंदु हो सकती है। इसलिए कथाकार को जीवन-यथार्थ से सीधे मुठभेड़ की जरूरत भी महसूस हो सकती है।

वैसे प्रिया आनन्द की इन कहानियों में जीवन के अनुभवों की कमी नहीं है, मगर यह सच है कि लेखिका को अभी जीवन के गहरे अनुभवों से गुजरना है। वैसे इन कहानियों को पढ़कर यह लगता है कि इनका अगला मोर्चा, मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग स्त्री के जीवन की संघर्ष-गाथा पर ही होना चाहिए। हालाँकि यह रास्ता निरापद नहीं है, क्योंकि प्रेम पर लिखना सबसे कठिन कार्य है, पर कुछ कहानियाँ इस बात पर विश्वास पैदा करती हैं कि वे प्रेम-संसार पर बेहतर कहानियाँ लिख सकती हैं। इन कहानियों का ‘रोमानवादी यथार्थ’ काफी प्रभावशाली है। ये कहानियाँ इस यथार्थ को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने की संभावनाओं से ज्यादा दूर नहीं लगतीं। अभी उनकी कहानियों को सपनीली घाटियों से निकलकर पहाड़ की कँकरीली और पथरीली जमीन पर चलने का अभ्यास करना है।

एक जमाने में स्त्री-पुरुष-संबंधों पर रोमांटिक कहानियाँ खूब लिखी जाती थीं। साठोत्तर का दशक इस तरह की कहानियाँ लिखने और पढ़ने के लिए याद किया जाता है, क्योंकि लोगों का आजादी से मोहभंग बोने लगा था और राजनीति में विचार की शून्यता बढ़ती जा रही थी। प्रेम-कथाओं ने आम पाठक का मन खींचा साहित्य में भी इनके लिए जगह तालाशी जाने लगी। ‘नीहारिका’ पत्रिका में छपने वाली इस तरह की कहानियों में गजब का आकर्षण रहता था। प्रिया आनंद की ये कहानियाँ उस दौर की कहानियों की स्मृति को ताजा कर देती हैं।

कहानी-जगत् को प्रिया आनंद के कथा-लेखन से काफी उम्मीदें हैं। आशा है, भविष्य में वे बेहतर कहानियाँ लिखेंगी। वैसे भी, हिन्दी का यथार्थ बहुत विपरीत स्थितियों और उलझे हुए अंतर्द्वंद्वों का यथार्थ है, इसलिए हिन्दी में प्रेम-कहानियों का लेखन हुआ ही नहीं है। कितनी बड़ी बात है कि इस शून्य को गुलेरी जी की अकेली कहानी ‘उसने कहा था’, एक पूरी सदी तक भरती रही है। ‘रोमान’ शब्द से वीतराग होने की जरूरत नहीं है। आखिर सारे सपने और भविष्य भी तो रोमान का ही हिस्सा हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि रोमान के भीतर पैवस्त संवेगों के गहरे यथार्थ को उत्कीर्ण कर प्रिया आनंद कुछ यादगार प्रेम-कहानियों की रचना जरूर कर सकेंगी।
समस्त शुभकामनाओं सहित,

कमलेश्वर

सहेलियाँ


वे पूरे दस साल बाद मिली थीं। मान्या और पवित्रा दो पक्की सहेलियाँ। उसमे देखते ही मान्या उसकी ओर झुक आई।
-तेरा नाम पवित्रा क्यों ?
-और तेरा नाम मान्या क्यों ?- पवित्रा मुस्कराई, फिर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं। हुआ यह था कि पवित्रा का दिल अपने काम की निरंतरता से ऊब गया था। चाहे एक हफ्ते के लिए ही सही, वह ऑफिस की भीड़ से दूर कहीं जाकर आराम करना चाहती थी। उसे मान्या का ध्यान आया, जो डलहौजी में रहती थी। उसने मान्या को फोन करके किसी अच्छे से रिजोर्ट में अपने लिए एक कमरे की बुकिंग करने को कहा। मान्या फोन पर ही हँसने लगी थी....बोली थी- पवित्रा, आज बड़े दिनों बाद याद आई मेरी। चल, इसी बहाने तेरे साथ मैं भी रह लूँगी।

कुछ दिनों के लिए घर के झंझटों से एकदम आजाद.....। मान्या ने रेस्ट हाउस का एकांत-सा सेट बुक करवा लिया। बेड रूम, डायनिंग रूम और छोटा-सा बरामदा। सामने लॉन और लॉन में रखीं बेंत की सुंदर कुर्सियाँ। हरे देवदार वृक्षों से घिरे रेस्ट हाउस के गेट पर पवित्रा पहुँची, तो उसे बहुत राहत-सी महसूस हुई। वे दोनों बचपन से साथ ही पढ़ी थीं और दोनों को अपना बचपन बखूबी याद था, यहाँ तक कि पहली मुलाकात भी। उन दोनों का एडमिशन एक ही दिन हुआ था। पवित्रा के बाल कटे थे और उसने फूलों वाली फ्रॉक पहन रखी थी। मान्या की स्कर्ट नीले चैक की थी, टॉप सफेद थी और उसने पोनी टेल बाँध रखी थी। एडमिशन करवाकर दोनों एक साथ बाहर निकली थीं। अपने पापा का हाथ पकड़े सीढ़ियों से उतरती मान्या ने नाक सिकोड़कर पूछा था.....
-तेरा नाम पवित्रा क्यों है ?
-और तेरा नाम मान्या क्यों है ?

-मुझे भी पता नहीं......और फिर वे दोनों खिलखिलाकर हँस दी थीं।
सालों गुजर गए थे इस बात को........पर जब भी वे दोनों साथ होतीं, पहली मुलाकात को ड्रामे की तरह दोहरा लेती थीं।
मौसम भीगा-भीगा-सा था......हवा थोड़ी नम थी और काले बादल धीरे-धीरे पूरे आसमान को ढँकते जा रहे थे। मान्या का भारी ब्रीफकेस देखकर पवित्रा हँसी—
-मानू, क्या घर छोड़कर आई हो....?
-नहीं, पर तेरा आइडिया बहुत अच्छा था, और मुझे भी अच्छा लगा कि थोड़ा वक्त घर की धमाचौकड़ी से दूर रहकर बिताया जाए।

रात खाना खाते-खाते नौ बज गए। मौसम मई का था, पर बारिश की वजह से ठंड काफी हो गई थी। खाना खत्म हुआ तो पवित्रा ने साइड लैंप ऑन कर दिया और लिहाफ गले तक खींचकर किताब निकाल ली......।
-जन्मेजय फिर कभी मिला था क्या ?- मान्या ने उसके गले में बाहें डाल दीं।
-नहीं-पवित्रा ने किताब का रुख रोशनी की ओर कर लिया।

-तूने क्या किताब पढ़ने की कसम खा रखी है....?- मान्या ने उसके हाथों से किताब छीन ली।......बाहर गहरा अँधेरा था....दूर कोई पक्षी लगातार आर्त स्वर में चीखता जा रहा था। उसकी आवाज थम ही नहीं रही थी। लगता था, वह अपने साथियों से बिछड़ गया था। मान्या उसे सीधी नजरों से देख रही थी......पवित्रा की आँखों के नीचे हलकी स्याही दौड़ गई थी।
-पवित्रा....मैंने अपूर्व से कहा था कि इस हफ्ते समझ लो कि मैं तुम्हारी नहीं.....बच्चे तुम्हारे.....तुम जानो।

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